Wednesday, June 15, 2016

प्रचंड बहुमत के बावजूद संकट में दिल्ली सरकार

नई दिल्ली (सं.सू.)। दिल्ली की राजनीति में सोमवार (13 जून) से हलचल मची हुई है। यह हलचल आम आदमी पार्टी (आप) के संसदीय सचिव पद को ‘लाभ के पद’ से अलग करने की याचिका को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा ठुकराए जाने के बाद हुई। इसके बाद मीडिया में एक खबर तेजी से आई कि अब आप पार्टी के 21 विधायकों की सदस्यता जा सकती है। जानिए क्या है यह पूरा मामला और आगे क्या हो सकता है।

विदित हो कि आम आदमी पार्टी ने 13 मार्च 2015 को अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया था। दिल्ली विधानसभा में APP पूरे बहुमत के साथ है इसलिए इसे पास भी करवा लिया गया। इसके बाद राष्ट्रपति और इलेक्शन कमीशन के पास एक शिकायत आई जिसमें कहा गया था कि यह पद ‘लाभ का पद’ है इसलिए आप विधायकों की सदस्यता रद्द की जानी चाहिए। इससे पहले मई 2015 में इलेक्शन कमीशन के पास एक जनहित याचिका भी डाली गई थी।

अब सोमवार (13 जून) को राष्ट्रपति ने दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार के संसदीय सचिव विधेयक को मंजूरी देने से इनकार कर दिया। इसमें संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद के दायर से बाहर रखने का प्रावधान था। अब इस मामले का फैसला चुनाव आयोग को करना है। उसकी रिर्पोट राष्ट्रपति को भेजी जाएगी। संविधान विशेषज्ञों के मुताबिक किसी भी सांसद या विधायक की सदस्यता रद्द करने का अधिकार राष्ट्रपति के पास है।

संविधान के आर्टिकल 102(1)(a) और आर्टिकल 191(1)(a) के अनुसार पार्लियामेंट या फिर विधान सभा का कोई भी सदस्य अगर लाभ के किसी भी पद पर होता है उसकी सदस्यता जा सकती है। यह लाभ का पद केंद्र और राज्य किसी भी सरकार का हो सकता है। Delhi MLA (Removal of Disqualification) Act, 1997 के मुताबिक, संसदीय सचिव को भी इस लिस्ट से बाहर नहीं रखा गया है। यानी इस पद पर होना ‘लाभ का पद’ माना जाता है।

केजरीवाल की तरफ से पार्टी के बचाव में कहा जा रहा है कि उनके विधायकों को संसदीय सचिव बनकर कोई ‘आर्थिक लाभ’ नहीं मिल रहा। उन्होंने यह भी कहा है कि उनके विधायक संसदीय सचिव बनकर अपने पैसों पर लोगों की सेवा कर रहे हैं।

जनहित याचिका पर सुनवाई में एक साल क्यों लगा? विधायकों की सदस्यता रद्द करने की मांग दिल्ली के एक वकील, प्रशांत पटेल ने रखी थी। धीमी न्यायिक व्यस्था की वजह से मामला इतना लटक गया। इलेक्शन कमीशन के पास बात पहुंचने के बाद 21 विधायकों को मार्च 2016 में नोटिस दिया गया। मामले में देरी की वजह यह भी है की इलेक्शन कमीशन ने 21 विधायकों को एक-एक करके बुलाने का फैसला लिया था। इसके विरोध में प्रशांत ने कहा था कि यह मामले को लटकाने का तरीका है। फिलहाल अगली सुनवाई के लिए तारीख भी तय नहीं हुई है।

अगर राष्ट्रपति इसको पास कर देते तो क्या होता? अगर इस बिल पर राष्ट्रपति मुहर लगा देते तो यह कानून बन जाता और फिर इलेक्शन कमीशन भी कुछ नहीं कर पाता। मगर अब राष्ट्रपति ने इसे साइन करने से मना कर दिया है। अब इलेक्शन कमीशन एक निर्णय लेकर उसको राष्ट्रपति के पास भेजेगा।

अब इलेक्शन कमीशन ही तय करेगा कि संसदीय सचिव लाभ का पद है या नहीं। एक तरफ केजरीवाल का कहना है कि उन्हें कोई लाभ या फिर पैसा नहीं मिल रहा है, वहीं पटेल का कहना है कि केजरीवाल के विधायकों को इसके लिए कमरे और ऑफिस स्टाफ मिला हुआ है जिन्हें पैसे भी दिए जाते हैं।

कोई भी पार्टी राष्ट्रपति के निर्णय को चैलेंज नहीं कर सकती। सुप्रीम कोर्ट में भी राष्ट्रपति के फैसले के खिलाफ याचिका नहीं डाली जा सकती। इलेक्शन कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद उसे राष्ट्रपति के पास पहुंचने से पहले ही केजरीवाल को दिल्ली हाई कोर्ट में केस डालना होगा।

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