नई दिल्ली (सं.सू.)। जमीयत उलमा-ए-हिंद ने पर्सनल लॉ की दुहाई देते हुए सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम महिलाओं के हक पर सुनवाई का विरोध किया है। जमीयत ने कहा है कि पर्सनल लॉ के प्रावधानों को मौलिक अधिकारों के हनन के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट मुस्लिम पर्सनल लॉ में शादी, तलाक और गुजारे भत्ते के मसले पर सुनवाई नहीं कर सकता।
मुस्लिम महिलाओं के अधिकार पर सुनवाई में पक्षकार बनने के लिए जमीयत ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की है। मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने शुक्रवार को संक्षिप्त सुनवाई के बाद उसे पक्षकार बनने की इजाजत दे दी। पीठ ने छह सप्ताह में उसे अपना पक्ष रखने का निर्देश दिया है।
जमीयत की ओर से पेश वरिष्ठ वकील हजेफा अहमदी और एजाज मकबूल ने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में महिलाओं को पर्याप्त अधिकार दिया गया है। जमीयत का कहना है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ पवित्र कुरान पर आधारित है। इसे विधायिका ने तैयार नहीं किया है। इसलिए इसे अनुच्छेद 13 के तहत लागू नहीं किया जा सकता। इसलिए इसकी वैधानिकता को मौलिक अधिकारों के आधार पर नहीं परखा जा सकता।
जमीयत का कहना है कि संविधान का अनुच्छेद 44 सभी नागरिकों के लिए समान आचार संहिता की बात करता है। लेकिन यह अनुच्छेद सिर्फ राज्य के नीति निदेशक तत्वों में दिया गया है। इसे लागू नहीं कराया जा सकता। जब तक समान नागरिक संहिता लागू नहीं होती, तब तक विभिन्न धर्मों में पर्सनल लॉ जारी रहने की इजाजत दी गई है। संविधान निर्माता समान नागरिक संहिता की मुश्किलों से वाकिफ थे। इसीलिए उन्होंने पर्सनल लॉ में दखल नहीं दिया और इसे सिर्फ नीति निदेशक तत्वों में रखा। जमीयत का कहना है कि अगर कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं की शादी, तलाक या गुजारे भत्ते के बारे में नियम बनाया, तो यह एक प्रकार से अदालत द्वारा बनाया गया कानून होगा। इसकी इजाजत नहीं है। कोर्ट पहले भी कह चुका है कि अदालत विधायिका का काम नहीं कर सकती।
सुप्रीम कोर्ट 1997 में अहमदाबाद वीमन एक्शन ग्रुप बनाम भारत सरकार मामले में इसी मुद्दे पर विचार कर चुका है। उस समय कोर्ट ने मामले पर विचार करने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया था कि यह मुद्दा राज्य की नीति से जुड़ा है। इसी तरह कृष्णा सिंह बनाम मथुरा अथिर के मामले में कोर्ट ने कहा था कि मौलिक अधिकारों में पर्सनल लॉ को नहीं छेड़ा गया है। हाई कोर्ट पर्सनल लॉ के मुद्दे पर विचार करते समय अपना नजरिया नहीं दे सकता। सिर्फ कानून लागू कर सकता है।
विदित हो कि सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर स्वत: संज्ञान लेते हुए उनके अधिकारों पर सुनवाई का मन बनाया है। तीन तलाक, एक पत्नी के रहते दूसरी शादी और भरण-पोषण के मामले पर अदालत मौलिक अधिकारों के संदर्भ में विचार करेगी। मामले को जनहित याचिका में बदलने के लिए कोर्ट ने अटार्नी जनरल और राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण को नोटिस जारी किया था।
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